दीवाली से जुड़ी बचपन की कुछ यादें
एक आम बच्चे की तरह मुझे भी दीवाली बहुत पसंद थी। लेकिन एक विशेष दीवाली पर एक ऐसी घटना हुई जिसने मेरा नज़रिया दीवाली और पूरे जीवन को लेकर बदल दिया।

बचपन में मैं हफ़्तों पहले से दीवाली का इंतज़ार करता था। मुझे पटाखे, नए कपड़े, दियों की रोशनी, मिठाइयाँ, और विशेष रूप से स्कूल से छुट्टियाँ बहुत पसंद थीं।

लेकिन, दीवाली आती थी और चंद घंटों में ही गुज़र जाती थी। मानो मुट्ठी में भरी रेत हो जो फिसल गई हो। रात होते-होते हर ओर सन्नाटा, बुझे हुए दिए, मूर्तियों पर चढ़े फूल मुरझाए हुए।

सब कुछ वीरान!

ख़ैर, अगले दिन अन्नकूट होती थी, और वह दिन भी पूरा मस्ती से भरा होता था। एक बार यूँ हुआ कि मैं घर से सुबह-सुबह तैयार होकर अपने दोस्तों से मिलने पहुँचा क्योंकि हम क्रिकेट खेलने जाने वाले थे। लेकिन जहाँ भी गया हर एक दोस्त या तो सो रहा था या किसी काम में व्यस्त था।

मजबूरन मैं अकेला एक चबूतरे पर बैठ गया। सड़कें सूनी थीं। अचानक नज़र कुछ पटाखों के बचे हुए टुकड़ों पर पड़ी जो चारों ओर बिखरे हुए थे। उस वक़्त मेरी उम्र 15-16 साल रही होगी। तब मुझे पहली बार हर चीज़ की क्षणभंगुरता का अहसास हुआ। सब एक क्षण में ही भंग हो जाता है, मिट जाता है, जैसे पानी पर खिंची लकीर।

जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, हर एक घटना को ऐसे ही गुज़रते देखा। एक लंबा, बेसब्र इंतज़ार; और घटना शुरू हुई नहीं कि मिटी, जैसे किसी परिजन का विवाह।

शुरू में बड़ी निराशा होती थी इस अनुभव से। बाहर की चमक-धमक, उमंग-तरंग, उत्सव-उत्साह सब धुआँ-धुआँ सा लगने लगा।

उसी वक़्त मास्टर (ओशो) से मिलना हुआ उनकी किताबों द्वारा, और ध्यान के बारे में पता चला। अब चूँकि बाहर तो कुछ ऐसा न था जिसे पकड़ा जा सके क्योंकि सब कुछ फिसल ही जाता था, कितना ही कसकर पकड़ो। तो सोचा क्यों न अंतस जगत में एक डुबकी मारी जाए।

जैसे-जैसे अंदर गहरे गया, एक नए जगत के दर्शन हुए। बिल्कुल अनोखे रंगों, रस, रोशनी से भरा हुआ जगत। वहाँ तो हर दिन ही दीवाली थी! अंदर की दीवाली बाहर की दिवाली जैसे नहीं थी कि आई और चली गई। यह एक शाश्वत दीवाली थी। और आज तक बनी हुई है।

उस दिन पटाखों के बुझे हुए टुकड़ों ने मेरे अंदर आध्यात्म की एक चिंगारी चलाई जिसने मेरे जीवन को रूपांतरित कर दिया।